राजस्थान के लोक देवता (Folk Deities of Rajasthan)
February 5th, 2023
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प्राचीन समय में कुछ ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने कार्यों तथा दृढ़ आत्मबल से समाज में सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना, हिन्दू धर्म की रक्षा तथा जनहितार्थ अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और अपनी अलौकिक शक्तियों एवं लोकमंगलकारी कार्यों के लिए लोक आस्था के प्रतीक बन गए। इन्हें जनसामान्य द्वारा दुःखहर्ता व मंगलकर्ता के रूप में पूजा जाने लगा। इन्हें लोकदेवता (Folk Deities of Rajasthan – Rajasthan ke Lok Devta) के नाम से जाना गया। जिन लोकदेवताओं की पूजा हिन्दू और मुस्लिम दोनों करते हैं, उन्हें पीर कहा जाता है। मारवाड़ अंचल में 5 लोकदेवताओं- पाबूजी, हड़बूजी, रामदेवजी, गोगाजी एवं मांगलिया मेहाजी को पीर माना गया है। इन्हें पंच पीर के नाम से भी जाता जाता है।
पाबू, हडबू, रामदे, मांगलिया मेहा।
पांचू पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा।।
इस लेख में हिंदी में राजस्थान के लोक देवता (Folk Deities of Rajasthan – Rajasthan ke Lok Devta) से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्यों को शामिल किया गया है। राजस्थान के प्रमुख लोकदेवताओं (Rajasthan ke Lok Devta) का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
पाबूजी राठौड़ (Pabuji Rathore)
- पाबूजी राठौड़ का जन्म संवत 1313 में जोधपुर जिले में फलौदी के पास कोलूमंड गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम धांधल और माता का नाम कमलादे था।
- इनका विवाह अमरकोट के राजा सूरजमल सोढा की पुत्री फूलमदे (सुप्यारदे) से हो रहा था कि ये फेरों के बीच से ही उठकर अपने बहनोई जीन्दराव खींची से देवल चारणी (जिसकी केसर कालमी घोड़ी ये मांग कर लाए थे) की गायें छुड़ाने चले गए और देचूं गांव में युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए। इसलिए इन्हे गौ-रक्षक देवता के रूप मे पूजा जाता है।
- पाबूजी को प्लेग रक्षक एवं ऊंटों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। कहा जाता है कि मारवाड़ में सर्वप्रथम ऊंट (साण्डे) लाने का श्रेय पाबूजी को ही है। इसलिए ऊंटों की पालक राइका ( रेबारी/देवासी ) जाति इन्हें अपना आराध्य देव मानती है। ये थोरी एवं भील जाति में अति लोकप्रिय हैं तथा मेहर जाति के मुसलमान इन्हें पीर मानकर पूजा करते हैं। इन्हें लक्ष्मण का अवतार भी माना जाता है।
- पाबूजी केसर कालमी घोड़ी एवं बांयीं और झुकी पाग के लिए प्रसिद्ध है। इनका बोध चिह्न ‘भाला’ है।
- पाबूजी का मेला प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को कोलूमंड में भरता है।
- चांदा-डेमा एवं हरमल पाबूजी के रक्षक सहयोगी के रूप में जाने जाते हैं।
- ‘पाबूजी की फड़’ भील जाति के भोपों द्वारा ‘रावणहत्था’ वाद्य के साथ बांची जाती है। पाबूजी की फड़ राज्य की सर्वाधिक लोकप्रिय फड़ है।
- भीलवाड़ में पुर गांव के धुलची नामक चितेरे ने सर्वप्रथम पाबूजी की फड़ का निर्माण किया। पाबूजी की फड़ गाथा की रचना कार देवल चारणी को माना जाता है ।
- पाबूजी से संबंधित गाथा गीत ‘पाबूजी के पवाड़े’ माट/माठ वाद्य के साथ नायक एवं रेबारी जाति द्वारा गाए जाते हैं।
- पाबूजी पर कुछ पुस्तकें भी लिखी गई है-
पुस्तक | लेखक |
---|---|
पाबू प्रकास | आशिया मोडजी |
पाबूजी रा छन्द | बीठू मेहा जी |
पाबूजी रा दूहा | लघराज |
पाबूजी रा सोरठा | रामनाथ |
पाबूजी रा रूपक | मोतीसर बगतावर |
हडबू जी सांखला (Hadbu Ji Sankhala)
- हडबू जी का जन्म भूंडेल, नागौर (Nagaur) में हुआ था।
- इनके पिता का नाम राजा मेहाजी सांखला था।
- लोकदेवता रामदेव जी हडबू जी के मौसेरे भाई थे, जिनकी प्रेरणा से हडबू जी ने योगी बालीनाथ से दीक्षा ली तथा बाबा रामदेव के समाज सुधार के लक्ष्य के लिए उन्होंने आजीवन पूर्ण निष्ठा से कार्य किया।
- राव जोधा को मंडौर जीत का आशीर्वाद हडबू जी ने ही दिया था और साथ ही उन्हें युद्ध के लिए कटार भी भेंट की थी। जोधा ने युद्ध जीतने के बाद हडबू जी को बेंगटी गांव सौंप दिया।
- बेंगटी में हडबू जी अपंग गायों की सेवा करते थे।
- बेंगटी में राजा अजीत सिंह ने हडबू जी के मंदिर का निर्माण कराया। यहां उनकी बेलगाड़ी की पूजा की जाती है।
- शृद्धालुओं द्वारा मनाई गई मनौती या कार्य सिद्ध होने पर गांव बेंगटी में स्थापित मंदिर में ‘हड़बू जी की गाड़ी’ की पूजा की जाती है। इस गाड़ी में हडबू जी पंगु गायों के लिए घास भर कर दूर-दूर से लाते थे।
- हडबू जी शकुन शास्त्र के ज्ञाता थे।
- बेंगटी (फलौदी, जोधपुर) में हड़बू जी का मुख्य पूजा स्थल है एवं इनके पुजारी सांखला राजपूत होते हैं।
- हडबू जी का वाहन सियार को माना जाता है।
रामदेवजी तंवर (Ramdev Ji Tanwar)
- सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में ‘रामसा पीर‘, ‘रुणीचा रा. धणी’ और ‘बाबा रामदेव’ नाम से प्रसिद्ध लोकदेवता रामदेवजी का जन्म भाद्रपद शुक्ल द्वितीया (बाबेरी बीज) सं. 1462 (सन् 1405) को बाड़मेर की शिव तहसील के उंडूकाश्मीर में हुआ। रामदेव जी तंवर वंशीय राजपूत थे। ये अर्जुन के वंशज माने जाते हैं।
- इनके पिता का नाम अजमाल जी (पोकरण के सामन्त) और माता का नाम मैणादे था।
- इनका विवाह नेतलदे (अमरकोट के दलेल सिंह सोढ़ा की राजकुमारी) के साथ हुआ था।
- हिन्दू इन्हें कृष्ण का अवतार मानकर तथा मुसलमान ‘रामसा पीर’ के रूप में इनकी पूजा करते हैं। इन्हें ‘पीरो का पीर’ भी कहा जाता है।
- रामदेवजी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, ऊंच-नीच आदि बुराइयों को दूर कर सामाजिक समरसता स्थापित की थी। इसलिए सभी जातियों (विशेषतः निम्न जातियों के) एवं सभी समुदायों के लोग इनकी पूजा करते हैं। ये अपनी वीरता और समाज सुधार के कारण पूज्य हुए। इन्होंने बाल्यावस्था में ही पोकरण इलाके के क्रूर व्यक्ति भैरव की अराजकता समाप्त कर अपनी वीरता का परिचय दिया।
- इनके गुरु का नाम बालीनाथ था। ऐसी मान्यता है कि रामदेवजी ने भैरव राक्षस का वध कर जनता को कष्ट से मुक्ति दिलाई, पोकरण कस्बे को पुनः बसाया तथा रुणेचा में रामसरोवर का निर्माण करवाया।
- जैसलमेर जिले की पोकरण तहसील के रामदेवरा (रुणीचा) में रामदेवजी का विशाल मंदिर है, जहां हर वर्ष भाद्रपद शुक्ला द्वितीया से एकादशी तक विशाल मेला भरता है, जिसकी मुख्य विशेषता साम्प्रदायिक सद्भाव है, क्योंकि यहां हिन्दू-मुस्लिम एवं अन्य धर्मों के लोग बड़ी मात्रा में आते हैं। इस मेले का दूसरा आकर्षण रामदेवजी की भक्ति में कामड़ जाति की स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला तेरहताली नृत्य है। इनके अन्य मंदिर जोधपुर के पश्चिम में मसूरिया पहाड़ी पर, छोटा रामदेवरा (गुजरात), बिरांटिया (अजमेर) एवं सुरताखेड़ा (चित्तौड़गढ़), हलदिना (अलवर) में भी हैं।
- रामदेवजी के मंदिरो को ‘देवरा’ कहा जाता है, जिन पर श्वेत या 5 रंगों की ध्वजा फहराई जाती है, जिसे ‘नेजा’ कहते है।
- रामदेवजी के भक्त इन्हें कपड़े का बना घोड़ा चढ़ाते हैं। रामदेव जी का घोड़ा ‘लीलो’ था।
- इनकी फड़ का वाचन मेघवाल जाति या कामड़ पंथ के लोग करते है। इनके मेघवाल भक्त जनों को ‘रिखिया’ कहते हैं।
- रामदेवजी के नाम पर भाद्रपद द्वितीया व एकादशी को रात्रि जागरण किया जाता है, जिसे ‘जम्मा’ कहते हैं।
- रामदेव जी का प्रतीक चिह्न पगल्ये कहलाते है और इनके पगल्यों की पूजा की जाती है।
- इनके लोकगाथा गीत ब्यावले कहलाते हैं।
- रामदेवजी ही एक मात्र ऐसे देवता हैं, जो एक कवि भी थे। इनकी रचित ‘चौबीस बाणियां’ प्रसिद्ध हैं।
- इन्होने कामड़ पंथ की स्थापना की। कामड़ सम्प्रदाय की महिलाओं द्वारा तेरहताली नृत्य किया जाता है।
- रामदेव जी ने मेघवाल जाति की डाली बाई (Dali Bai) को अपनी बहन बनाया। डालीबाई रामदेवजी की अनन्य भक्त थी, जिन्होंने रामदेव जी से एक दिन पूर्व उनके पास ही जीवित समाधि ले ली थी। वहीं डाली बाई का मंदिर है।
- भाद्रपद सुदी एकादशी सं.1515 (सन् 1485) को रामदेवजी ने रुणीचा के राम सरोवर के किनारे जीवित समाधि ली थी।
मेहाजी मांगलिया (Rajasthan Ke Lok Devta: Mehaji Manglia)
- मेहाजी के पिता का नाम कीतू करणोत और माता का नाम मायड़दे था।
- मेहाजी सभी मांगलियों के इष्ट देव के रूप में पूजे जाते हैं।
- मेहाजी का सारा जीवन धर्म की रक्षा और मर्यादाओं के पालन में बीता। जैसलमेर के राव राणंगदेव भाटी से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
- मेहाजी का मुख्य मंदिर जोधपुर के बापणी गांव में हैं। इस मंदिर में मेहाजी की घुड़सवार प्रतिमा है। इस मंदिर में मांगलिया जाति के पुजारी होते हैं। लोक मान्यता है कि इनकी पूजा करने वाले भोपा की वंश वृद्धि नहीं होती। वे गोद लेकर पीढ़ी आगे चलाते हैं।
- मेहाजी के घोड़े का नाम किरड काबरा था।
- भाद्रपद में कृष्ण जन्माष्टमी को मांगलिया राजपूत मेहाजी की अष्टमी मनाते हैं।
गोगाजी चौहान (Rajasthan ke Lok Devta: Gogaji Chauhan)
- चौहान वंशीय गोगाजी का जन्म 11वीं सदी में चूरू जिले की राजगढ़ तहसील के ददरेवा नामक स्थान पर हुआ।
- इनके पिता का नाम जेवरसिंह और माता का नाम बाछलदे था।
- महमूद गजनवी ने गोगाजी को ‘जाहिर पीर’ की संज्ञा दी।
- गोगाजी का विवाह कोलमंद की राजकुमारी केलमादे के साथ तय हुआ था। लेकिन शादी से ठीक पहले केलमादे को सांप ने काट लिया। गोगाजी क्रोधित हो गए और उनके मंत्रों का जाप करने लगे। उनके मंत्र की शक्ति से सभी सर्प गर्म तेल की कड़ाही की ओर जाने लगे और मरने लगे। इस बात का पता चलने पर सर्पों के राजा ने आकर गोगाजी से क्षमा मांगी और केलमादे से विष चूस लिया। इससे गोगाजी शांत हुए। इसलिए गोगाजी ‘सांपों के रक्षक’ के रूप में लोकप्रिय हैं।
- गोगाजी गौ-रक्षार्थ अपने मौसेरे भाइयों अरजन और सरजन के खिलाफ युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। इसलिए इन्हें गायों का रक्षक भी माना जाता है।
- गोगाजी के ‘थान’ खेजड़ी वृक्ष के नीचे होते हैं, जहां मूर्ति स्वरूप एक पत्थर पर सर्प की आकृति अंकित होती है। राजस्थान का किसान वर्षा के बाद हल जोतने से पहले गोगाजी के नाम की राखी ‘गोगा राखड़ी’ हल और हाली, दोनो के बांधता है। इन्हें सर्पदंश से बचाव हेतु पूजा जाता है।
- गोगाजी की सवारी ‘नीली घोड़ी’ थी। इन्हें ‘गोगा बाप्पा’ के नाम से भी पुकारते हैं।
- गोरखनाथजी इनके गुरु थे।
- इनके लोकगाथा गीतों में डेरू नामक वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
- गोगाजी के जन्म स्थल ददरेवा को शीर्षमेड़ी तथा समाधि स्थल ‘गोगामेड़ी’ (नोहर-हनुमानगढ़) को ‘धुरमेड़ी’ भी कहते हैं। गोगामेड़ी में प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा नवमी (गोगा नवमी) को विशाल मेला भरता है।
- सांचोर (जालौर) किलौरियों की ढाणी में भी ‘गोगाजी की ओल्डी’ नामक स्थान पर भी गोगाजी का मंदिर है।
- गोगामेड़ी का निर्माण बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने करवाया। 1911 में बीकानेर के महाराजा श्री गंगा सिंहजी ने पुनर्निर्मित किया था। इसका निर्माण मकबरा शैली में किया गया है। इसके मुख्य द्वार पर बिस्मिल्लाह अंकित है।
- गोगाजी पर लिखी गई पुस्तक ‘गोगाजी रा रसावला’ कवि मेह ने लिखी है।
तेजाजी (Rajasthan Ke Lok Devta: Tejaji)
- तेजाजी का जन्म जाट वंश में माघ शुक्ल चतुर्दशी वि.स. 1130 (सन् 1073 ई.) को खरनाल (नागौर) में हुआ।
- इन्हें जाटों का अराध्य देव कहते है। इन्हें कृषि कार्यो का उपकारक देवता, गायों का मुक्ति दाता, काला व बाला का देवता भी कहते है। अजमेर में इनको धोलियावीर के नाम से जानते है।
- इनके पिता का नाम ताहड़ जी और माता का नाम रामकुंवरी था।
- तेजाजी का विवाह पनेर, अजमेर के रायमल जी की बेटी पेमल से हुआ था। पेमल से विवाह होने के पूर्व तेजाजी के पांच और विवाह होने का उल्लेख मिलता है। तेजाजी की पत्नी उनकी मृत्यु के बाद सती हुई थी।
- तेजाजी की घोड़ी का नाम लीलण (सिंणगारी) था। इनकी घोड़ी के नाम पर रेल सेवा ‘लीलण एक्सप्रेस’ भी चलती है।
- इनके पुजारी/भोपे को ‘घोड़ला’ कहते हैं।
- इनके थान पर सर्प व कुत्ते काटे प्राणी का इलाज होता है। प्रत्येक किसान तेजाजी के गीत के साथ ही बुवाई प्रारम्भ करता है। ऐसा विश्वास है कि इस स्मरण से भावी फसल अच्छी होगी।
- तेजाजी ने लाछां गुजरी की गायों को मेर के मीणाओं से छुड़ाने के लिए संघर्ष किया।
- सुरसरा (किशनगढ़ अजमेर) गांव में नागदेवता के डसने से भाद्र शुक्ला दशमी शनिवार वि.सं. 1160 को वीर तेजाजी देवलोक सिधार गए।
- नागौर जिले के परबतसर गांव में तेजाजी का मुख्य मंदिर है। यह मंदिर जोधपुर के राजा अभय सिंह के समय बनवाया गया। जहां प्रतिवर्ष ‘भाद्रपद शुक्ल दशमी’ को विशाल मेला भरता है। भाद्र शुक्ल दशमी को तेजा दशमी भी कहते है।
- तेजाजी विशेषत: अजमेर जिले के लोकदेवता हैं। इनके मुख्य ‘थान’ अजमेर जिले के सुरसुरा, पनेर, सेंदरिया एवं भावतां में हैं। उनके जन्म स्थान खरनाल और बूंदी जिले के बासी दुगारी में भी इनका मंदिर है। खरनाल में इनकी बहन बूंगरी माता का भी मंदिर बना हुआ है।
- तेजाजी महाराज पर डाक टिकट भी जारी किया गया था।
- तेजाजी पर कुछ पुस्तकें भी लिखी गई है-
पुस्तक | लेखक |
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जुझार तेजा | लज्जाराम मेहता |
लज्जाराम मेहता | बंशीधर शर्मा |
देवनारायण जी (Devnarayan Ji)
- देवजी का जन्म संवत् 1300 में ‘बगड़ावत’ गुर्जर परिवार में भीलवाड़ा के आसीन्द में हुआ।
- इनके पिता का नाम सवाईभोज और माता का नाम सेढू था। इनका जन्म नाम उदयसिंह था।
- देवनारायण जी का विवाह धार के राजा जयसिंह परमार की पुत्री पीपलदे से हुआ था।
- देवनारायण जी विष्णु का अवतार माने जाते है।
- देवनारायणजी का मेला भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को लगता है।
- गुर्जर जाति के आराध्य देव है।
- इन्हें औषधि का देवता, चमत्कारी लोक पुरुष भी कहते हैं।
- देवनारायण जी के घोडे़ का नाम ‘लीलागर’ था।
- देवनारायण के देवरों में उनकी प्रतिमा के स्थान पर ‘ईंट’ की पूजा होती है। इनके मंदिर में नीम के पत्ते चढ़ाए जाते है।
- देवनारायण जी की फड़ गुर्जर भोपों द्वारा बांची जाती है। फड़ वाचन के समय ‘जन्तर’ नामक वाद्य यंत्र का उपयोग किया जाता है। इनकी फड़ राज्य की सबसे लम्बी फड़ है। इनकी फड़ पर भारत सरकार 1992 में द्वारा 5 रुपए का टिकट भी जारी किया जा चुका है।
- देवनारायणजी महाराज पर डाक टिकट भी जारी किया गया था।
- इनके प्रमुख मंदिर सवाई भोज मंदिर (आसीन्द ) भीलवाड़ा, देव धाम जोधपुरिया (टोंक), देवमाली (ब्यावर, अजमेर) देवडूंगरी (चित्तौड़गढ़) में है।
- देवडूंगरी का निर्माण राणा सांगा ने करवाया था। ये देवनारायणजी को ईष्ट मानते थे।
देवबाबा जी (Devbaba Ji)
- देवबाबा जी का जन्म नगला जहाज (भरतपुर) में हुआ।
- भरतपुर के नगला जहाज गांव में देव बाबा का मंदिर है, जहां वर्ष में दो बार भाद्रपद शुक्ल पंचमी तथा चैत्र शुक्ल पंचमी को मेला भरता है।
- पशु चिकित्सा का अच्छा ज्ञान होने के कारण देव बाबा गुर्जरों व ग्वालों के पालनहार एवं कष्ट निवारक के रूप में पूजनीय हो गए। इन्हें ‘ग्वालों का पालन हारा’ भी कहते है।
मल्लीनाथ जी (Mallinath Ji)
- मल्लीनाथ जी का जन्म सन् 1358 ई. में मारवाड़ के राव तीड़ा जी (सलखा जी) के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में तिलवाडा (बाडमेर) में हुआ। इनकी माता का नाम जाणीदे था।
- इनका विवाह रूपादे के साथ हुआ। इन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर छुआछूत मिटाने का प्रयास किया।
- इने गुरु उगमसिंह भाटी थे।
- ऐसी मान्यता है कि मल्लीनाथ जी एक भविष्यदृष्टा एवं चमत्कारी पुरुष थे, जिन्होंने विदेशी आक्रांताओं से जनसाधारण की रक्षा करने एवं जनता का मनोबल बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये निर्गुण, निराकार ईश्वर को मानते थे।
- तिलवाड़ा (बाड़मेर) में इनका प्रसिद्ध मंदिर है। यहां हर वर्ष चैत्र कृष्ण एकादशी से शुक्ल एकादशी तक 15 दिन का मेला भरता है, जहां बड़ी संख्या में पशुओं क क्रय-विक्रय भी होता है ।
- इनकी रानी रुपादे का मंदिर भी तिलवाड़ा से कुछ दूरी पर मालाजाल गांव में स्थित है ।
- लोकमान्यता है कि बाड़मेर के मालानी क्षेत्र का नाम इन्हीं के नाम पर पड़ा।
तल्लीनाथ जी (Tallinath Ji)
- तल्लीनाथ जी का वास्तविक नाम गोगादेव राठौड़ था। ये शेरगढ़ (जोधपुर) ठिकाने के शासक थे। ये मंडोर (मारवाड़) के राजा राव चूंड़ा के छोटे भाई थे।
- इनके पिता का नाम वीरमदेव था।
- तल्लीनाथ जी जालौर जिले के अत्यंत प्रसिद्ध लोक देवता हैं।
- इनके गुरु जालन्धर नाथ थे। इनके गुरु ने ही इन्हें तल्लीनाथ का नाम दिया था।
- जालौर के पांचोटा गांव के निकट पंचमुखी पहाड़ी के बीच घोड़े पर सवार बाबा तल्लीनाथ की मूर्ति स्थापित है। यह इनका प्रमुख मंदिर है।
- जालौर क्षेत्र के लोग इसके आसपास के क्षेत्र को ओरण मानते हैं एवं कोई पेड़-पौधा नहीं काटते हैं।
- इन्हें ‘ओरण का देवता’ कहते हैं। ‘ओरण’ मंदिर के आसपास की वह जमीन हैं, जहां से पेड-पौधे नहीं काटे जाते है।
वीर बग्गाजी/बिग्गा जी (Veer Bagga Ji)
- वीर बग्गाजी का जन्म बीकानेर के रीडी गांव के जाट परिवार में हुआ। यहीं इनका प्रमुख मंदिर है।
- इनके पिता का नाम रावमोहन और माता का नाम सुलतानी था।
- जाखड़ समाज में इन्हें कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है।
- वीर बग्गाजी ने सम्पूर्ण जीवन गौ-सेवा में व्यतीत किया और अंत में मुस्लिम लुटेरों से गाय छुड़ाते समय वीरगति को प्राप्त हुए।
हरिराम जी (Hariram Ji)
- हरिराम जी का जन्म नागौर जिले के झोरड़ा गांव में हुआ। यहीं इनका प्रमुख मंदिर है।
- ये सर्प रक्षक देवता थे। सर्प दंश का इलाज करते थे।
- मंदिर में सांप की बांबी एवं बाबा के प्रतीक के रूप में चरण कमल हैं। सांप की बांबी की पूजा की जाती हैं।
- इनका मेला भाद्रपद शुक्ल पंचमी को भरता है।
- बाबा आजीवन ब्रह्मचारी रहे।
केसरिया कुंवरजी (Kesariya Kunwar Ji)
- केसरिया कुंवरजी गोगाजी के पुत्र है जो लोकदेवता (Rajasthan ke Lok Devta) के रूप में पूजे जाते हैं।
- ये सर्प रक्षक देवता थे।
- इनका भोपा सर्प दंश के रोगी का जहर मुंह से चूसकर बाहर निकाल देता है।
- इनके ‘थान’ पर सफेद रंग का ध्वज फहराते हैं।
झरड़ाजी/रूपनाथजी (Jharda Ji/ Roopnath Ji)
- ये पाबूजी के बड़े भाई बूढ़ो जी के पुत्र थे।
- इन्होंने अपने पिता व चाचा (पाबूजी) की मृत्यु का बदला जींदराव खीची को मारकर लिया। इसके बाद इन्होंने नाथ संप्रदाय अपनाया और रूपनाथ के रूप में भी जाने गए।
- कोलूमंड (जोधपुर) के पास पहाड़ी पर तथा बीकानेर के सिंभूदड़ा (नोखामंडी) पर इनके प्रमुख थान (स्थान) हैं।
- हिमाचल प्रदेश में इन्हें ‘बालकनाथ’ के रूप में पूजा जाता है।
कल्ला जी राठौड़ (Kalla Ji Rathore)
- कल्ला जी का जन्म 1544 ई. (वि.स. 1601) में आश्विन शुक्ल अष्टमी को सामियाना, मेड़ता (नागौर) में हुआ था। इनके पिता का नाम अचल सिंह ( मेड़ता के शासक रावदुदा के छोटे पुत्र ) और माता का नाम श्वेत कुंवर था।
- इन्हें शेषनाग का अवतार माना जाता है। इन्हें ‘चार भुजाओं वाला देवता’ भी कहते है।
- इनके गुरु योगी भैरवनाथ थे।
- 1567 ई. में चित्तौडगढ़ के तृतीय शाके के दौरान अकबर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। युद्धभूमि में चतुर्भुज के रूप में दिखाई गई वीरता के कारण इनकी ख्याति चार हाथ वाले लोक देवता के रूप में हुई।
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कल्लाजी राठौड़ की भैंरव पोल पर एक छतरी बनी हुई है।
- ‘रनेला’ इस वीर का सिद्ध पीठ है। भूत-पिशाच ग्रस्त लोग, रोगी पशु, पागल कुत्ता, गोयरा, सर्प आदि विषैले जन्तुओं से दंशित व्यक्ति या पशु सभी कल्लाजी की कृपा से संताप से छुटकारा पाते हैं।
- मीरा बाई इनकी बुआ थी।
- इन्हें योगाभ्यास और जड़ी-बूटियों का ज्ञान था।
झुंझार जी महाराज (Jhunjhar Ji Maharaj)
- झुंझार जी जन्म सीकर जिले के इमलोहा गांव में राजपूत परिवार में हुआ।
- अपने भाइयों के साथ मिलकर मुस्लिम लुटेरों से गांव की रक्षा करते हुए अपने प्राण गंवा दिए।
- स्यालोदड़ा, सीकर में इनका प्रमुख मंदिर है। मंदिर में 5 पत्थर की मूर्तियां (दुल्हा दुल्हन तथा तीन भाईयों की मूर्तियां) लगी हुई हैं।
- प्रतिवर्ष रामनवमी को इनकी स्मृति में गांव में मेला लगता है।
मामादेव जी (Mamadev Ji)
- मामादेव जी को बरसात का देवता कहा जाता हैं।
- इनके मंदिर नहीं होते हैं, बल्कि गांव के बाहर की मुख्य सड़क पर लकड़ी के एक विशिष्ट व कलात्मक तोरण को प्रतिष्ठित किया जाता है और उसकी पूजा की जाती है।
- मामादेव जी को खुश करने के लिए भैंसे की बली दी जाती है।
वीर फत्ता जी (Veer Fatta Ji)
- वीर फत्ता जी का जन्म जालौर के सांथू गांव में हुआ। यहीं इनका प्रमुख मंदिर है।
- सांथू गांव में प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल नवमी को मेला लगता है।
- लुटेरों से गांव की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की बलि दी।
आलम जी (Alam Ji)
- आलम जी का प्रमुख मंदिर धोरीमन्ना (बाड़मेर) में है।
- धोरीमन्ना को ‘घोड़ो का तीर्थस्थल’ कहते हैं।
- आलम जी को घोड़ो का देवता कहा जाता हैं।
- आलम जी जैतमालोत राठौड़ थे।
डूंगजी – जवाहर जी (Doong Ji – Jawahar Ji)
- ये दोनों सीकर जिले के बाठोठ – पाटोदा गांव के सामंत थे।
- शेखावाटी क्षेत्र में धनी लोगों को लूटकर उनका धन गरीबों एवं जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे।
- इन्होनें अंग्रेजों की नसीराबाद छावनी लूट ली।
- इनके मुख्य सहयोगी- लोहटजी जाट (लोठू जी निठारवाल), करणा जी मीणा, बालू जी नाई, सांखू जी लोहार थे।
खेतला जी (Khetla Ji)
- इनका मुख्य मंदिर सोनाणा (पाली) में है।
- यहां हकलाने वाले बच्चो का इलाज किया जाता है।
- प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इनका मेला भरता है।